लाले पड़े हैं जान के जीने का एहतिमाम कर
जिन में हो कैफ़-ए-ज़िंदगी बहर-ए-ख़ुदा वो काम कर
तौर-ए-हयात से उड़ा जज़्बा-ए-ज़ीस्तन की आग
जब कहीं जा के नियत-ए-ज़िंदगी दवाम कर
पहले ये सोच दाम के तोड़ने की सकत भी है
बाद को दिल में ख़्वाहिश-ए-दाना-ए-ज़ेर-ए-दाम कर
तुझ को तिरी ही आँख से देख रही है काएनात
बात ये राज़ की नहीं अपना ख़ुद एहतिराम कर
हैफ़ समझ रहा है तू अपनी झिजक को मोहतसिब
मय-कदा-ए-हयात में शौक़ से मय-ब-जाम कर
नक़्श-नवी नहीं है तू सफ़्हा-ए-रोज़गार पर
मिटने से गर नहीं मफ़र मिट ही के अपना नाम कर
बंदा-ए-ख़्वाहिशात को कहता है कौन अब्द-ए-हुर
चाहिए हुर्रियत अगर दिल को 'अमीं' ग़ुलाम कर
ग़ज़ल
लाले पड़े हैं जान के जीने का एहतिमाम कर
अमीन हज़ीं