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लाख कुछ न हम कहते बे-ज़बाँ रहे होते | शाही शायरी
lakh kuchh na hum kahte be-zaban rahe hote

ग़ज़ल

लाख कुछ न हम कहते बे-ज़बाँ रहे होते

चरण सिंह बशर

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लाख कुछ न हम कहते बे-ज़बाँ रहे होते
आप तो ब-हर-सूरत बद-गुमाँ रहे होते

वो तो रंग ले आई अपने ख़ून की गर्मी
वर्ना सारे क़िस्से में हम कहाँ रहे होते

रात के भँवर में हैं हम चराग़ की सूरत
साथ साथ होते तो कहकशाँ रहे होते

आज इक हक़ीक़त हैं सर-फ़रोशियाँ अपनी
वर्ना हम तबाही की दास्ताँ रहे होते

धूप है मसाइल की और इक 'बशर' तन्हा
काश सर पे रिश्तों के साएबाँ रहे होते