लाई न सबा बू-ए-चमन अब के बरस भी
कुछ सोच के ख़ामोश हैं यारान-ए-क़फ़स भी
दस्तूर-ए-मोहब्बत ही नहीं जाँ से गुज़रना
कर लेते हैं ये काम कभी अहल-ए-हवस भी
नाज़ुक हैं मराहिल सफ़र-ए-मंज़िल-ए-ग़म के
इस राह में खो जाती है आवाज़-ए-जरस भी
आज़ाद भी हो जाएँगे आख़िर तिरे क़ैदी
इक रोज़ बिखर जाएगी ज़ंजीर-ए-नफ़स भी
अंगुश्त-नुमा शैख़-ओ-बरहमन के चलन पर
मस्जिद के मनारे भी हैं मंदिर के कलस भी
दीवाना अभी तक है उसी दुश्मन-ए-जाँ का
आता है दिल-ए-ज़ार पे ग़ुस्सा भी तरस भी
कुछ आप का ग़म कुछ ग़म-ए-जाँ कुछ ग़म-ए-दुनिया
दामन में मिरे फूल भी हैं ख़ार भी ख़स भी
चुप रह के भी मुमकिन न रहा दर्द छुपाना
इक शोला-ए-आवाज़ है अब मौज-ए-नफ़स भी
ग़ज़ल
लाई न सबा बू-ए-चमन अब के बरस भी
अज़ीम मुर्तज़ा