लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
मेरा ज़िम्मा देख कर गर कोई बतला दे मुझे
क्या तअज्जुब है जो उस को देख कर आ जाए रहम
वाँ तलक कोई किसी हीले से पहुँचा दे मुझे
मुँह न दिखलावे न दिखला पर ब-अंदाज़-ए-इताब
खोल कर पर्दा ज़रा आँखें ही दिखला दे मुझे
याँ तलक मेरी गिरफ़्तारी से वो ख़ुश है कि मैं
ज़ुल्फ़ गर बन जाऊँ तो शाने में उलझा दे मुझे
ग़ज़ल
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब