ला के दुनिया में हमें ज़हर-ए-फ़ना देते हैं
हाए इस भूल-भुलय्याँ में दग़ा देते हैं
रहम भी ज़ुल्म-ओ-सितम से नहीं ख़ाली उन का
दामन-ए-तेग़ से ज़ख़्मों को हवा देते हैं
दिल में दर्द आँखों में आशोब-ए-जिगर में सोज़िश
इश्क़ क्या देते हैं इक रोग लगा देते हैं
मुनइमों का नहीं दरयूज़ा-गरों पर एहसाँ
आप क्या देंगे वो ख़ालिक़ का दिया देते हैं
दहन-ए-यार की तारीफ़ लिखी क्या कहना
'क़द्र' तो झूट को सच कर के दिखा देते हैं
ग़ज़ल
ला के दुनिया में हमें ज़हर-ए-फ़ना देते हैं
क़द्र बिलगरामी