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क्यूँके करे न शहर को रो रो उजाड़ चश्म | शाही शायरी
kyunke kare na shahr ko ro ro ujaD chashm

ग़ज़ल

क्यूँके करे न शहर को रो रो उजाड़ चश्म

अब्दुल वहाब यकरू

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क्यूँके करे न शहर को रो रो उजाड़ चश्म
तूफ़ान है पहाड़ कूँ डाली उखाड़ चश्म

नद्दी कनार रूख का हो है न बास रास्त
रौ करे बहाए अश्क सीं मिज़्गाँ के झाड़ चश्म

आशिक़ का जान क्यूँके बचेगा कि आज दिल
ख़ूँ हो तरी निगाह सीं नकसे है फाड़ चश्म

वो ख़ुश-निगाह दिल मैं लगा के गया है आग
आँझू हुए हैं दाना-ए-बरयान भाड़ चश्म

तुझ तेग़ अबरुवाँ के मुक़ाबिल हुई थी आज
दिल चाक हो रहा है हमारा दराड़ चश्म

'यकरू' का कुछ गुनाह नहीं सर्व-क़द्द-ए-जान
छट उस कि देखता है तिरी ताड़ ताड़ चश्म