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क्यूँ यक़ीं रक्खें ख़याल-ओ-ख़्वाब पर | शाही शायरी
kyun yaqin rakkhen KHayal-o-KHwab par

ग़ज़ल

क्यूँ यक़ीं रक्खें ख़याल-ओ-ख़्वाब पर

रूमाना रूमी

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क्यूँ यक़ीं रक्खें ख़याल-ओ-ख़्वाब पर
जम न जाए गर्द-ए-ग़म आ'साब पर

पीटते रहना लकीरें है अबस
ग़ौर करना चाहिए अस्बाब पर

लिख रहा है रौशनी की दास्ताँ
इक दिया जलता हुआ मेहराब पर

अपने दुख का माजरा छेड़ा नहीं
ये मिरा एहसान है अहबाब पर

तुम भी दुनिया वालों जैसे हो गए
पड़ गई थी क्या नज़र सुरख़ाब पर

कश्तियाँ 'रूमी' डुबोते हम रहे
तोहमतें लगती रहें गिर्दाब पर