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क्यूँ याद ये सब क़हत के अस्बाब न आए | शाही शायरी
kyun yaad ye sab qaht ke asbab na aae

ग़ज़ल

क्यूँ याद ये सब क़हत के अस्बाब न आए

महताब अालम

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क्यूँ याद ये सब क़हत के अस्बाब न आए
जब हम ने दुआ की थी कि सैलाब न आए

हम को तो उतरना है समुंदर की तहों में
हाथ आए कि अब गौहर-ए-नायाब न आए

तदबीर के मेहवर पे रहा में यूँही रक़्साँ
ताबीर के मरकज़ पे मिरे ख़्वाब न आए

बाहर जो उठे शोर तो खिड़की से न झाँको
आँखों पे तुम्हारी कहीं तेज़ाब न आए

एलान किया उड़ती हुई ख़ाक ने हर सम्त
मंज़र पे कोई ख़ित्ता-ए-शादाब न आए

मैं ने जो कहा तुख़्म-ए-वफ़ा हैं मिरे आँसू
कहने लगे मिट्टी में उन्हें दाब न आए

निकले हैं सर-ए-शाम लिए मशअ'ल-ए-फ़न हम
नज़दीक कोई काग़ज़ी महताब न आए