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क्यूँ वो महबूब रू-ब-रू न रहे | शाही शायरी
kyun wo mahbub ru-ba-ru na rahe

ग़ज़ल

क्यूँ वो महबूब रू-ब-रू न रहे

ज़हीर अहमद ताज

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क्यूँ वो महबूब रू-ब-रू न रहे
क्यूँ निगाहों में गुफ़्तुगू न रहे

इश्क़ है मुंतहा-ए-महविय्यत
आरज़ू की भी आरज़ू न रहे

ज़िंदगी ये कि वो तुझे चाहें
मौत है ये कि आबरू न रहे

बंदगी है सुपुर्दगी-ए-तमाम
उन की मर्ज़ी में गुफ़्तुगू न रहे

तुम जो बैठे हो छुप के पर्दों में
चश्म क्यूँ महव-ए-रंग-ओ-बू न रहे

दिल का हर बार है नया आलम
क्यूँ ख़यालों में गुफ़्तुगू न रहे

चश्म-ए-साक़ी हो मेहरबान अगर
ख़्वाहिश-ए-बादा-ओ-सुबू न रहे

आँख वो उस को पा नहीं सकती
ख़ून-ए-दिल से जो बा-वज़ू न रहे

दोस्त से मान 'ताज' वो हस्ती
जिस मैं कुछ फ़र्क़ मा-ओ-तू न रहे