क्यूँ वो महबूब रू-ब-रू न रहे
क्यूँ निगाहों में गुफ़्तुगू न रहे
इश्क़ है मुंतहा-ए-महविय्यत
आरज़ू की भी आरज़ू न रहे
ज़िंदगी ये कि वो तुझे चाहें
मौत है ये कि आबरू न रहे
बंदगी है सुपुर्दगी-ए-तमाम
उन की मर्ज़ी में गुफ़्तुगू न रहे
तुम जो बैठे हो छुप के पर्दों में
चश्म क्यूँ महव-ए-रंग-ओ-बू न रहे
दिल का हर बार है नया आलम
क्यूँ ख़यालों में गुफ़्तुगू न रहे
चश्म-ए-साक़ी हो मेहरबान अगर
ख़्वाहिश-ए-बादा-ओ-सुबू न रहे
आँख वो उस को पा नहीं सकती
ख़ून-ए-दिल से जो बा-वज़ू न रहे
दोस्त से मान 'ताज' वो हस्ती
जिस मैं कुछ फ़र्क़ मा-ओ-तू न रहे
ग़ज़ल
क्यूँ वो महबूब रू-ब-रू न रहे
ज़हीर अहमद ताज