क्यूँ तिरे साथ रहीं उम्र बसर होने तक
हम न देखेंगे इमारत को खंडर होने तक
तुम तो दरवाज़ा खुला देख के दर आए हो
तुम ने देखा नहीं दीवार को दर होने तक
चुप रहीं आह भरें चीख़ उठें या मर जाएँ
क्या करें बे-ख़बरो तुम को ख़बर होने तक
हम पे कर ध्यान अरे चाँद को तकने वाले
चाँद के पास तो मोहलत है सहर होने तक
हाल मत पोछिए कुछ बातें बताने की नहीं
बस दुआ कीजे दुआओं में असर होने तक
सग-ए-आवारा के मानिंद मोहब्बत के फ़क़ीर
दर-ब-दर होते रहे शहर-बदर होने तक
आप माली हैं न सूरज हैं न मौसम फिर भी
बीज को देखते रहिएगा समर होने तक
दश्त-ए-ख़ामोश में दम साधे पड़ा रहता है
पाँव का पहला निशाँ राह-गुज़र होने तक
फ़ानी होने से न घबराईए 'फ़ारिस' कि हमें
अन-गिनत मर्तबा मरना है अमर होने तक
ग़ज़ल
क्यूँ तिरे साथ रहीं उम्र बसर होने तक
रहमान फ़ारिस