क्यूँ रंग-ए-सुर्ख़ तेरा अब ज़र्द हो गया है
तू ही मगर हमारा हमदर्द हो गया है
वे दिन गए कि दिल में रहता था दर्द अपने
अब दिल नहीं सरापा इक दर्द हो गया है
इतना तो फ़र्क़ मुझ में और दिल में है कि तुझ बिन
मैं ख़ाक हो गया हूँ वो गर्द हो गया है
है चाक चाक सीना क्यूँकर छुपे तू दिल में
ये तो मकान सारा बे-पर्द हो गया है
किस तरह शैख़ छेड़े अब दुख़्त-ए-रज़ को आ कर
इस तर्फ़ से बेचारा नामर्द हो गया है
याँ क्या न था जो वाँ की रक्खे 'हसन' तवक़्क़ो
दोनों जहाँ से अपना दिल सर्द हो गया है
ग़ज़ल
क्यूँ रंग-ए-सुर्ख़ तेरा अब ज़र्द हो गया है
मीर हसन