क्यूँ न ले गुलशन से बाज उस अर्ग़वाँ-सीमा का रंग
गुल से है ख़ुश-रंग-तर उस के हिनाई पा का रंग
जूँ-ही मुँह पर से उठा दी बाग़ में आ कर नक़ाब
उड़ गया रंग-ए-चमन देख उस रुख़-ए-ज़ेबा का रंग
सर पे दस्तार-ए-बसंती बर में जामा क़ुर्मुज़ी
खुब गया दिल में हमारे उस गुल-ए-रअना का रंग
आज साक़ी देख तू क्या है अजब रंगीन हुआ
सुर्ख़ मय काली घटा और सब्ज़ है मीना का रंग
दे तू इस अब्र-ए-सियह में जाम जल्दी से मुझे
दिल भरा आता है मेरा देख कर सहबा का रंग
जिस तरफ़ देखूँ हूँ अब 'बेदार' तेरे अश्क से
हो रहा है सुर्ख़ यकसर दामन-ए-सहरा का रंग
ग़ज़ल
क्यूँ न ले गुलशन से बाज उस अर्ग़वाँ-सीमा का रंग
मीर मोहम्मदी बेदार