क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
यानी उस बीमार को नज़्ज़ारे से परहेज़ है
मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
वाए नाकामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है
आरिज़-ए-गुल देख रू-ए-यार याद आया 'असद'
जोशिश-ए-फ़स्ल-ए-बहारी इश्तियाक़-अंगेज़ है
ग़ज़ल
क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
मिर्ज़ा ग़ालिब