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क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो | शाही शायरी
kyun na ho chashm-e-butan mahw-e-taghaful kyun na ho

ग़ज़ल

क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो

मिर्ज़ा ग़ालिब

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क्यूँ न हो चश्म-ए-बुताँ महव-ए-तग़ाफ़ुल क्यूँ न हो
यानी उस बीमार को नज़्ज़ारे से परहेज़ है

मरते मरते देखने की आरज़ू रह जाएगी
वाए नाकामी कि उस काफ़िर का ख़ंजर तेज़ है

आरिज़-ए-गुल देख रू-ए-यार याद आया 'असद'
जोशिश-ए-फ़स्ल-ए-बहारी इश्तियाक़-अंगेज़ है