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क्यूँ न हो बाम पे वो जल्वा-नुमा तीसरे दिन | शाही शायरी
kyun na ho baam pe wo jalwa-numa tisre din

ग़ज़ल

क्यूँ न हो बाम पे वो जल्वा-नुमा तीसरे दिन

नज़ीर अकबराबादी

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क्यूँ न हो बाम पे वो जल्वा-नुमा तीसरे दिन
माह भी छुप के निकलता है दिला तीसरे दिन

हाथ से अब तो क़लम रश्क-ए-मसीहा रख दे
नुस्ख़े बदले हैं जहाँ के हुकमा तीसरे दिन

ग़र्क़-ए-दरिया-ए-मोहब्बत की नहीं मिलती लाश
वर्ना डूबा हुआ निकले है सुना तीसरे दिन

दिल-ए-बीमार रहे इश्क़ में क्यूँ कर सरसब्ज़
ख़ाक से दाने को है नश्व-ओ-नुमा तीसरे दिन

छोड़ मत ज़ुल्फ़ के मारे को तू दरिया में हनूज़
साँप के काटे को देते हैं बहा तीसरे दिन

अब ज़रा चश्म के बीमार का कर अपने इलाज
होती मालूम है तासीर-ए-दवा तीसरे दिन

लोग कहते हैं कि हैं फूल तिरे कुश्ते के
मेहंदी हातों में तू क़ातिल लगा तीसरे दिन

उम्र इक हफ़्ता नहीं बाग़ में ऐ गुल मत फूल
रंग बदले है ज़माने की हवा तीसरे दिन

चार हर्फ़ उस बुत-ए-पुर-ख़ूँ के उपर भेज 'नज़ीर'
आप से आप जो हो जाए ख़फ़ा तीसरे दिन