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क्यूँ न हम सोच के साँचे में ही ढल कर देखें | शाही शायरी
kyun na hum soch ke sanche mein hi Dhal kar dekhen

ग़ज़ल

क्यूँ न हम सोच के साँचे में ही ढल कर देखें

सादुल्लाह शाह

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क्यूँ न हम सोच के साँचे में ही ढल कर देखें
वो जो क़ाएम है तो फिर ख़ुद को बदल कर देखें

गो मसाफ़त है कठिन और न रस्ता कोई
लेकिन इस हाल में अच्छा है कि चल कर देखें

हम मोहब्बत को मुकम्मल नहीं ज़ाहिर करते
वो हिना-बर्ग को चुटकी में मसल कर देखें

ज़िंदगी मौत में मख़्फ़ी है यक़ीनन अपनी
मिस्ल-ए-परवाना चलो हम भी तो जल कर देखें

एक कोशिश जो है उस की उसे अंजाम तो दें
इस की ख़्वाहिश पे ज़रा देर को टल कर देखें

'साद' लोगों से तवक़्क़ो' हो तो किस बात पे हो
मूँग छाती पे मिरे रोज़ वो दल कर देखें