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क्यूँ मलामत का हदफ़ गर्दिश-ए-पैमाना बने | शाही शायरी
kyun malamat ka hadaf gardish-e-paimana bane

ग़ज़ल

क्यूँ मलामत का हदफ़ गर्दिश-ए-पैमाना बने

अलक़मा शिबली

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क्यूँ मलामत का हदफ़ गर्दिश-ए-पैमाना बने
लग़्ज़िश-ए-पा से मिरी का'बा-ओ-बुत-ख़ाना बने

अक़्ल के बस की नहीं बख़िया-गिरी फूलों की
दर्द जिस को हो गुलिस्ताँ का वो दीवाना बने

लब-ए-हिक्मत से शब-ओ-रोज़ उजाले टपके
तीरा-ज़ेहनी का मगर ये भी मुदावा न बने

बे-सबब शौक़ नहीं माइल-ए-अफ़साना-गरी
हर हक़ीक़त की ये ख़्वाहिश है कि अफ़्साना बने

रुख़-ए-जानाँ के तसव्वुर ही में रातें गुज़रीं
चाँद-तारे दिल-ए-महजूर की दुनिया न बने

आश्ना फ़स्ल-ए-बहाराँ ही नहीं है शायद
क्या कहीं फूल कि क्यूँ सब्ज़ा-ए-बेगाना बने

मैं तो हूँ शम-ए-सिफ़त-सोज़ सरापा 'शिबली'
जिस को जलना नहीं आता हो वो परवाना बने