क्यूँ मैं बार-ए-दिगर जाऊँ
फिर से उस के दर जाऊँ
तुझ आँखों से जहाँ देखूँ
बे-रंगी से डर जाऊँ
तू चाहे तो जी उठ्ठूँ
तू चाहे तो मर जाऊँ
मैं बे-अंत समुंदर हूँ
कैसे दरिया में उतर जाऊँ
चादर-ए-शब हूँ मैं तेरी
तू ओढ़े तो सँवर जाऊँ
ख़्वाब न देखूँ तो 'अम्बर'
शायद मैं भी मर जाऊँ
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ग़ज़ल
क्यूँ मैं बार-ए-दिगर जाऊँ
नादिया अंबर लोधी