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क्यूँ भटकती सहरा में घर भी इक ख़राबा था | शाही शायरी
kyun bhaTakti sahra mein ghar bhi ek KHaraba tha

ग़ज़ल

क्यूँ भटकती सहरा में घर भी इक ख़राबा था

सादिया रोशन सिद्दीक़ी

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क्यूँ भटकती सहरा में घर भी इक ख़राबा था
बे-निशाँ उदासी का बे-अमाँ अहाता था

जब कभी नज़र आया ख़्वाब में नज़र आया
वो जहाँ पे रहता था कौन सा इलाक़ा था

दाख़ली कशाकश से बा-ख़बर तो हो जाता
ज़ेहन सोचता क्या था दिल का क्या तक़ाज़ा था

उस ने हाल जब पूछा मैं भी मुस्कुरा उट्ठी
इक वही तो लम्हा था जब मुझे इफ़ाक़ा था

उस की चश्म-ए-कम-कम से ज़ख़्म-ए-दिल ने जो पाया
गुल्सिताँ के फूलों में इक नया इज़ाफ़ा था

अन-कही कहानी से इन अधूरी साँसों तक
बस ये नीम-जानी ही मेरा कुल असासा था

मेरी जान जैसी थी और जिस जगह पर थी
ऐसी सारी बातों का शेर ही ख़ुलासा था

'सादिया' की हैरानी आज तक नहीं जाती
कौन था तमाशाई किस का वो तमाशा था