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क्यूँ और ज़ख़्म सीने पे खाओ हो दोस्तो | शाही शायरी
kyun aur zaKHm sine pe khao ho dosto

ग़ज़ल

क्यूँ और ज़ख़्म सीने पे खाओ हो दोस्तो

सुलैमान अहमद मानी

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क्यूँ और ज़ख़्म सीने पे खाओ हो दोस्तो
काहे किसी से आस लगाओ हो दोस्तो

इक आबरू बची है सो रखियो सँभाल के
किस पास क्या ग़रज़ लिए जाओ हो दोस्तो

पहुँचे वहीं हैं आज जहाँ से चले थे हम
अब राह कौन और दिखाओ हो दोस्तो

इस तब्अ' से तो ख़ुद ही परेशान है ये दिल
ठेस उस को और काहे लगाओ हो दोस्तो

जौर-ओ-जफ़ा-ए-यार के ये उज़्र वाह ख़ूब
ये कैसी बात हम को बताओ हो दोस्तो

मुद्दत हुई कि ख़त्म हुआ उस गली में सब
अब और किस के कूचे में जाओ हो दोस्तो