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क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना | शाही शायरी
kyun andheron ka musafir hai muqaddar apna

ग़ज़ल

क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना

रिफ़अतुल क़ासमी

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क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना
कोई सूरज तो निकाले ये समुंदर अपना

ज़ुल्मत-ए-शब में जलाए हुए अश्कों के चराग़
इश्क़ की राह में ख़ुद इश्क़ है रहबर अपना

क्या लगाएगा कोई मेरी अना की क़ीमत
दोनों आलम से गिराँ-तर है ये जौहर अपना

कोई चेहरा तो कहीं हो तिरे चेहरे की तरह
शहर-ए-ख़ूबाँ में नहीं एक भी मंज़र अपना

दिल में रौशन है तिरा दर्द ज़माने से निहाँ
क्या सदफ़ ने भी दिखाया कभी गौहर अपना

उस के लब-ख़ंद में ढल जाए ख़िज़ाँ का मौसम
उस को गुलनार करें ज़ख़्म दिखा कर अपना

अंजुमन गोश-बर-आवाज़ है 'रिफ़अत' देखें
किस के सीने में उतरता है ये नश्तर अपना