क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना
कोई सूरज तो निकाले ये समुंदर अपना
ज़ुल्मत-ए-शब में जलाए हुए अश्कों के चराग़
इश्क़ की राह में ख़ुद इश्क़ है रहबर अपना
क्या लगाएगा कोई मेरी अना की क़ीमत
दोनों आलम से गिराँ-तर है ये जौहर अपना
कोई चेहरा तो कहीं हो तिरे चेहरे की तरह
शहर-ए-ख़ूबाँ में नहीं एक भी मंज़र अपना
दिल में रौशन है तिरा दर्द ज़माने से निहाँ
क्या सदफ़ ने भी दिखाया कभी गौहर अपना
उस के लब-ख़ंद में ढल जाए ख़िज़ाँ का मौसम
उस को गुलनार करें ज़ख़्म दिखा कर अपना
अंजुमन गोश-बर-आवाज़ है 'रिफ़अत' देखें
किस के सीने में उतरता है ये नश्तर अपना
ग़ज़ल
क्यूँ अंधेरों का मुसाफ़िर है मुक़द्दर अपना
रिफ़अतुल क़ासमी