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क्या ज़िंदगी ने रक्खी सौग़ात मेरे हक़ में | शाही शायरी
kya zindagi ne rakkhi saughat mere haq mein

ग़ज़ल

क्या ज़िंदगी ने रक्खी सौग़ात मेरे हक़ में

पवन कुमार

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क्या ज़िंदगी ने रक्खी सौग़ात मेरे हक़ में
हर जीत उस को हासिल हर मात मेरे हक़ में

तक़्सीम हो गया है दोनों में एक रहबर
इक हाथ उस के हिस्से इक हात मेरे हक़ में

मुद्दत से नम है दामन आख़िर दिखाएँ किस को
इक रोज़ हो गई थी बरसात मेरे हक़ में

हैं रौनक़ें कहीं तो बेदारियाँ कहीं हैं
जो रात उस के हक़ में वो रात मेरे हक़ में

यूँ मुश्तरक थे हम सब हर फ़र्द था मसावी
फिर भी हैं सारे मुश्किल हालात मेरे हक़ में

क्या ख़ूब है तुम्हारा ये मन्सब-ए-सख़ावत
सब इल्तिफ़ात ख़ुद पर ज़ुल्मात मेरे हक़ में

लाज़िम है नग़्मगी भी गोयाई भी ज़रूरी
लिखती है अब ख़मोशी नग़्मात मेरे हक़ में