EN اردو
क्या ज़माना था कि हम रोज़ मिला करते थे | शाही शायरी
kya zamana tha ki hum rose mila karte the

ग़ज़ल

क्या ज़माना था कि हम रोज़ मिला करते थे

नासिर काज़मी

;

क्या ज़माना था कि हम रोज़ मिला करते थे
रात-भर चाँद के हमराह फिरा करते थे

जहाँ तन्हाइयाँ सर फोड़ के सो जाती हैं
इन मकानों में अजब लोग रहा करते थे

कर दिया आज ज़माने ने उन्हें भी मजबूर
कभी ये लोग मिरे दुख की दवा करते थे

देख कर जो हमें चुप-चाप गुज़र जाता है
कभी उस शख़्स को हम प्यार किया करते थे

इत्तिफ़ाक़ात-ए-ज़माना भी अजब हैं नासिर
आज वो देख रहे हैं जो सुना करते थे