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क्या यक़ीं और क्या गुमाँ चुप रह | शाही शायरी
kya yaqin aur kya guman chup rah

ग़ज़ल

क्या यक़ीं और क्या गुमाँ चुप रह

जौन एलिया

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क्या यक़ीं और क्या गुमाँ चुप रह
शाम का वक़्त है मियाँ चुप रह

हो गया क़िस्सा-ए-वजूद तमाम
है अब आग़ाज़-ए-दास्ताँ चुप रह

मैं तो पहले ही जा चुका हूँ कहीं
तू भी जानाँ नहीं यहाँ चुप रह

तू अब आया है हाल में अपने
जब ज़मीं है न आसमाँ चुप रह

तू जहाँ था जहाँ जहाँ था कभी
तू भी अब तो नहीं वहाँ चुप रह

ज़िक्र छेड़ा ख़ुदा का फिर तू ने
याँ है इंसाँ भी राएगाँ चुप रह

सारा सौदा निकाल दे सर से
अब नहीं कोई आस्ताँ चुप रह

अहरमन हो ख़ुदा हो या आदम
हो चुका सब का इम्तिहाँ चुप रह

दरमियानी ही अब सभी कुछ है
तू नहीं अपने दरमियाँ चुप रह

अब कोई बात तेरी बात नहीं
नहीं तेरी तिरी ज़बाँ चुप रह

है यहाँ ज़िक्र-ए-हाल-ए-मौजूदाँ
तू है अब अज़-गुज़िश्तगाँ चुप रह

हिज्र की जाँ-कनी तमाम हुई
दिल हुआ 'जौन' बे-अमाँ चुप रह