क्या यही है जिस पे हम देते हैं जाँ
या कोई दुनिया-ए-फ़ानी और है
यूँ तो हर इंसान गोया है मगर
शेवा-ए-शेवा-बयानी और है
चल रही है जिस से जिस्मानी मशीन
कोई पोशीदा कमानी और है
दिल ने पैदा की कहाँ से ये तरंग
कोई तहरीक-ए-निहानी और है
ग़ैर समझा है किसे ऐ हम-नशीं
मेरे दिल में बद-गुमानी और है
तुम ने कब देखा है बे-रंगी का रंग
बे निशानी की निशानी और है

ग़ज़ल
क्या यही है जिस पे हम देते हैं जाँ
इस्माइल मेरठी