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क्या उस का गिला यूरिश-ए-तोहमात बहुत है | शाही शायरी
kya us ka gila yurish-e-tohmat bahut hai

ग़ज़ल

क्या उस का गिला यूरिश-ए-तोहमात बहुत है

क़ाज़ी एहतिशाम बछरौनी

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क्या उस का गिला यूरिश-ए-तोहमात बहुत है
ज़िंदा हैं जो हम लोग यही बात बहुत है

जो तुम ने बुझा डाले दिए उन को जला लो
ऐ सुब्ह के मतवालो अभी रात बहुत है

इस वास्ते गुलचीं को हुई मुझ से अदावत
तज़ईन-ए-गुलिस्ताँ में मिरा हाथ बहुत है

उन फ़िरक़ा-परस्तों के दिलों में है कुदूरत
और विर्द-ए-ज़बाँ लफ़्ज़-ए-मुसावात बहुत है

उन अम्न-पसंदों के परखने को कसौटी
इस दौर की तफ़्सील-ए-फ़सादात बहुत है

ये बेटों के सर भाई का ख़ूँ बहनों की चीख़ें
इबरत हो अगर हम को ये सौग़ात बहुत है

बेहिस हो जो इंसाँ तू कहे जाइए कुछ भी
ग़ैरत हो अगर दिल में तो इक बात बहुत है

सीने से तिरे ग़म को लगाए तो रखेंगे
ना-साज़ मगर गर्दिश-ए-हालात बहुत है

हाँ बैठो गदा बन के बरस जाएगी दौलत
इन पुख़्ता मज़ारों में करामात बहुत है