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क्या सुने कोई ज़बानी मेरी | शाही शायरी
kya sune koi zabani meri

ग़ज़ल

क्या सुने कोई ज़बानी मेरी

उबैद सिद्दीक़ी

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क्या सुने कोई ज़बानी मेरी
और फिर वो भी कहानी मेरी

शहर सहरा की तरह लगता है
राएगाँ नक़्ल-ए-मकानी मेरी

एक चेहरा मिरे चेहरे से अलग
एक तस्वीर पुरानी मेरी

मैं कि दरिया था जो अब साकित हूँ
खो गई मुझ में रवानी मेरी

रात शबनम में बहुत भीगा था
देख अब शोला-फ़िशानी मेरी