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क्या क़यामत है कि इक शख़्स का हो भी न सकूँ | शाही शायरी
kya qayamat hai ki ek shaKHs ka ho bhi na sakun

ग़ज़ल

क्या क़यामत है कि इक शख़्स का हो भी न सकूँ

शाज़ तमकनत

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क्या क़यामत है कि इक शख़्स का हो भी न सकूँ
ज़िंदगी कौन सी दौलत है कि खो भी न सकूँ

घर से निकलूँ तो भरे शहर के हंगामे हैं
मैं वो मजबूर तिरी याद में रो भी न सकूँ

दिन के पहलू से लगा रहता है अंदेशा-ए-शाम
सुब्ह के ख़ौफ़ से नींद आए तो सो भी न सकूँ

ख़त्म होता ही नहीं सिलसिला-ए-मौज-ए-सराब
पार उतर भी न सकूँ नाव डुबो भी न सकूँ

'शाज़' मालूम हुआ इज्ज़-बयानी क्या है
दिल में वो आग है लफ़्ज़ों में समो भी न सकूँ