क्या पूछते हो शहर में घर और हमारा
रहने का है अंदाज़ इधर और हमारा
वो तेग़ न जाने किधर उठती है अभी तो
झगड़ा है दिल-ए-सीना-सिपर और हमारा
जब होश में आए तो उसे देख भी लेंगे
फ़िलहाल है अंदाज़-ए-नज़र और हमारा
ये मोहर ओ निशाँ तब्ल-ओ-अलम ख़ूब है लेकिन
बढ़ जाएगा कुछ बार-ए-सफ़र और हमारा
दिल ऐसा मकाँ छोड़ के ये हाल हुआ है
यानी निगह-ए-ख़ाना-बदर और हमारा
ग़ज़ल
क्या पूछते हो शहर में घर और हमारा
अहमद जावेद