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क्या नज़र की हुश्यारी ख़ुद-असीर-ए-मस्ती है | शाही शायरी
kya nazar ki hushyari KHud-asir-e-masti hai

ग़ज़ल

क्या नज़र की हुश्यारी ख़ुद-असीर-ए-मस्ती है

हनीफ़ फ़ौक़

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क्या नज़र की हुश्यारी ख़ुद-असीर-ए-मस्ती है
जो निगाह उठती है महव-ए-ख़ुद-परस्ती है

बादलों को तकता हूँ जाने कितनी मुद्दत से
एक बूँद पानी को ये ज़बाँ तरसती है

इक जनम के प्यासे भी सैर हों तो हम जानें
यूँ तो रहमत-ए-यज़्दाँ चार-सू बरसती है

रात ग़म की आई है होशियार दिल वालो
देखना है ये नागिन आज किस को डसती है

शायद आज आईना दिल का टूट ही जाए
फिर नज़र की वीरानी ज़िंदगी पे हँसती है

मैं ने अपनी पलकों पर ग़म-कदे सजाए हैं
आरज़ू के मातम में सोगवार हस्ती है

अब ब-ताबिश-ए-अख़्तर तीरगी है अफ़्ज़ूँ-तर
रौशनी भी बिक जाए ये कमाल-ए-पस्ती है