क्या मेरा इख़्तियार ज़मान-ओ-मकान पर
पहरे बिठा दिए हैं किसी शय ने धान पर
तुझ से बिछड़ के घर की तरफ़ लौटते हुए
क्यूँ बस्तियों का वहम हुआ हर चटान पर
हसरत रही कि सूरत-ए-आब-ए-रवाँ चलें
कब से मिसाल-ए-संग पड़े हैं ढलान पर
थी जिन की दस्तरस में हवा पा-ब-गिल हुए
ऐ मुश्त-ए-ख़ाक ज़ो'म कहाँ का उड़ान पर
हाँ आरज़ू तो दिल में कभी से है ज़ख़्म की
क्या अपना इख़्तियार किसी की कमान पर
ढलने लगी है शाम मिरे ख़ाक-दाँ की ख़ैर
शो'ला-फ़िशाँ हुई है शफ़क़ आसमान पर
'शाहिद' तमाम उम्र फिरा दर-ब-दर मगर
दस्तक न दे सका कभी अपने मकान पर

ग़ज़ल
क्या मेरा इख़्तियार ज़मान-ओ-मकान पर
सलीम शाहिद