क्या मज़ा हो जो किसी से तुझे उल्फ़त हो जाए
जी कुढ़े फ़िक्र रहे मेरी सी हालत हो जाए
तेरा बीमार दम-ए-नज़अ ये माँगे था दुआ
देख लूँ फिर उसे गर थोड़ी सी मोहलत हो जाए
जाइयो मत तू सबा बाग़ से ज़िंदाँ की तरफ़
मुझ को डर है न असीरों पे क़यामत हो जाए
ऐ दिल इक दिन तू गुज़र कर तरफ़-ए-अहल-ए-क़ुबूर
ता-कि देखे से उन्हों के तुझे इबरत हो जाए
देख तस्वीर को मजनूँ की 'हवस' रश्क न कर
चाहिए इश्क़ में तेरी भी ये सूरत हो जाए
ग़ज़ल
क्या मज़ा हो जो किसी से तुझे उल्फ़त हो जाए
मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस