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क्या लुत्फ़ मसाफ़त में कि डर कोई नहीं है | शाही शायरी
kya lutf masafat mein ki Dar koi nahin hai

ग़ज़ल

क्या लुत्फ़ मसाफ़त में कि डर कोई नहीं है

ख़ुर्रम ख़लीक़

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क्या लुत्फ़ मसाफ़त में कि डर कोई नहीं है
पानी का सफ़र और भँवर कोई नहीं है

फिर कौन है साहिल पे जो रुकने नहीं देता
वीरान जज़ीरों में अगर कोई नहीं है

इक चाप उतरती है दर-ए-दिल पे हर इक शब
देखा है कई बार मगर कोई नहीं है

तुम मेरी मसाफ़त के लिए आख़िरी हद हो
अब तुम से परे राहगुज़र कोई नहीं है

हर शख़्स है जैसे कोई वीरान हवेली
लिक्खा है ये माथों पे कि घर कोई नहीं है

है अपने मुक़द्दर में यही तीरगी 'ख़ुर्रम'
अब रात के दामन में सहर कोई नहीं है