क्या क्या सुपुर्द-ए-ख़ाक हुए नामवर तमाम
इक रोज़ सब को करना है अपना सफ़र तमाम
मेरी नज़र ने लूट लिए जल्वा-हा-ए-हुस्न
हसरत से देखते ही रहे दीदा-वर तमाम
तुम ने तो अपना कह के मुझे लूट ही लिया
मातम-कुनाँ है मेरे लिए घर का घर तमाम
माना कि मेरे लब न हिले रोब-ए-हुस्न से
रूदाद-ए-दिल तो कह ही गई चश्म-ए-तर तमाम
अब दीदनी है आप के बीमार-ए-ग़म का हाल
मायूस आ रहे हैं नज़र चारा-गर तमाम
राह-ए-वफ़ा में हद से हम आगे गुज़र गए
दो-गाम चल के बैठ गए राहबर तमाम
छोड़े हैं हम ने नक़्श-ए-मोहब्बत हर इक जगह
वाक़िफ़ हमारे हाल से हैं बाम-ओ-दर तमाम
ग़ज़ल
क्या क्या सुपुर्द-ए-ख़ाक हुए नामवर तमाम
अब्दुल रहमान ख़ान वासिफ़ी बहराईची