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क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं | शाही शायरी
kya kya nawah-e-chashm ki ranaiyan gain

ग़ज़ल

क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं

अज़हर इनायती

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क्या क्या नवाह-ए-चश्म की रानाइयाँ गईं
मौसम गया गुलाब गए तितलियाँ गईं

झूटी सियाहियों से हैं शजरे लिखे हुए
अब के हसब-नसब की भी सच्चाइयाँ गईं

किस ज़ेहन से ये सारे महाज़ों पे जंग थी
क्या फ़त्ह हो गया कि सफ़-आराइयाँ गईं

करने को रौशनी के तआ'क़ुब का तजरबा
कुछ दूर मेरे साथ भी परछाइयाँ गईं

आगे तो बे-चराग़ घरों का है सिलसिला
मेरे यहाँ से जाने कहाँ आँधियाँ गईं

'अज़हर' मिरी ग़ज़ल के सबब अब के शहर में
कितनी नई पुरानी शानासाइयाँ गईं