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क्या क्या न रंग तेरे तलबगार ला चुके | शाही शायरी
kya kya na rang tere talabgar la chuke

ग़ज़ल

क्या क्या न रंग तेरे तलबगार ला चुके

हैदर अली आतिश

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क्या क्या न रंग तेरे तलबगार ला चुके
मस्तों को जोश सूफ़ियों को हाल आ चुके

हस्ती को मिस्ल-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा मिटा चुके
आशिक़ नक़ाब-ए-शाहिद-ए-मक़्सूद उठा चुके

काबे से दैर दैर से काबे को जा चुके
क्या क्या न इस दो-राहे में हम फेर खा चुके

गुस्ताख़ हाथ तौक़े-ए-कमर यार के हुए
हद्द-ए-अदब से पाँव को आगे बढ़ा चुके

कनआँ से शहर-ए-मिस्र में यूसुफ़ को ले गए
बाज़ार में भी हुस्न को आख़िर दिखा चुके

पहुँचे तड़प तड़प के भी जल्लाद तक न हम
ताक़त से हाथ पाँव ज़ियादा हिला चुके

होती है तन में रूह पयाम-ए-अजल से शाद
दिन वादा-ए-विसाल के नज़दीक आ चुके

पैमाना मेरी उम्र का लबरेज़ हो कहीं
साक़ी मुझे भी अब तो प्याला पिला चुके

दीवाना जानते हैं तिरा होश्यार उन्हें
जामे को जिस्म के भी जो पुर्ज़े उड़ा चुके

बे-वजह हर दम आइना पेश-ए-नज़र नहीं
समझे हम आप आँखों में अपनी समा चुके

उस दिलरुबा से वस्ल हुआ दे के जान को
यूसुफ़ को मोल ले चुके क़ीमत चुका चुके

उट्ठा नक़ाब चेहरा-ए-ज़ेबा-ए-यार से
दीवार दरमियाँ जो थी हम उस को ढा चुके

ज़ेर-ए-ज़मीं भी तड़पेंगे ऐ आसमान-ए-हुस्न
बेताब तेरे गोर में भी चैन पा चुके

आराइश-ए-जमाल बला का नुज़ूल है
अंधेर कर दिया जो वो मिस्सी लगा चुके

दो अबरू और दो लब-ए-जाँ-बख़्श यार के
ज़िंदों को क़त्ल कर चुके मुर्दे जिला चुके

मजबूर कर दिया है मोहब्बत ने यार की
बाहर हम इख़्तियार से हैं अपने जा चुके

सदमों ने इश्क़-ए-हुस्न के दम कर दिया फ़ना
'आतिश' सज़ा गुनाह-ए-मोहब्बत की पा चुके