क्या क्या न दोस्ती के जनाज़े उठाए हैं
थक-हार कर अदू के इलाक़े में आए हैं
आ देख ज़िंदगी तिरी इज़्ज़त के वास्ते
ज़ख़्मी लबों से हम ने तबस्सुम लुटाए हैं
किस से करें सवाल के आवा भी चाहिए
हम ने भी चाक पर कई कूज़े बनाए हैं
तेज़ाब छिड़के जाएँगे रू-ए-गुलाब पर
सुनते हैं गुलिस्ताँ में वो तशरीफ़ लाए हैं
माज़ी को हाल करने की ये भी है इक ललक
आवाज़ तू ने दी है तो हम लौट आए हैं
हम पर ही रौशनी की इमामत हुई तमाम
हम ने दिए हवाओं के घर में जलाए हैं
सहरा में ज़िंदगी की अलामत भी ढूँढना
हम भी कई सुराग़ वहाँ छोड़ आए हैं
खींची थी तुम ने हद्द-ए-वफ़ा की जहाँ लकीर
हम हसरतें तमाम वहाँ छोड़ आए हैं
ये है किसी के ग़म की शरीअ'त का एहतिमाम
आँखें मिरी ज़रूर हैं आँसू पराए हैं
तोहफ़े में तुम ने भेजे थे बुझते दिए तमाम
और हम तुम्हारे वास्ते 'ख़ुर्शीद' लाए हैं

ग़ज़ल
क्या क्या न दोस्ती के जनाज़े उठाए हैं
ख़ुर्शीद अहमद मलिक