क्या क्या मज़े से रात की अहद-ए-शबाब में 
छोड़ूँ न उम्र-ए-रफ़्ता गर आ जाए ख़्वाब में 
इक दिल के वास्ते ये फँसे वो अज़ाब में 
रहते हैं अपनी ज़ुल्फ़ ही के पेच-ओ-ताब में 
है शौक़-ए-वस्ल तुझ से लिपटता हूँ बार बार 
वर्ना ये मस्तियाँ तो नहीं थीं शराब में 
इतनी न कीजे जाने की जल्दी शब-ए-विसाल 
देखे हैं मैं ने काम बिगड़ते शिताब में 
हो जाए चाक सीना कि दिल घुट के मर चला 
ऐ चारा-जू किसी को फँसा मत अज़ाब में 
कर बहर ओ बर की हस्ती-ए-मौहूम पर नज़र 
थोड़ी सी ख़ाक डाल दी चश्म-ए-पुर-आब में 
तब क़त्ल-गह में क़त्ल-ए-उदू को चले हैं वो 
मेरा लहू मिला के पिया जब शराब में 
किन मेहनतों से वस्ल पे राज़ी हुए हैं वो 
सौ नामा-बर हुए जो सवाल ओ जवाब में 
अख़्तर-शुमारियों में निकलता है दम कहीं 
'तस्कीं' तुम्हीं को दख़्ल नहीं है हिसाब में
        ग़ज़ल
क्या क्या मज़े से रात की अहद-ए-शबाब में
मीर तस्कीन देहलवी

