EN اردو
क्या किसी लम्हा-ए-रफ़्ता ने सताया है तुझे | शाही शायरी
kya kisi lamha-e-rafta ne sataya hai tujhe

ग़ज़ल

क्या किसी लम्हा-ए-रफ़्ता ने सताया है तुझे

सहर अंसारी

;

क्या किसी लम्हा-ए-रफ़्ता ने सताया है तुझे
इन दिनों मैं ने परेशान सा पाया है तुझे

बहर-ए-शादाबी-ए-जज़्बात की ऐ मौज-ए-रवाँ
कौन इस दश्त-ए-बला-ख़ेज़ में लाया है तुझे

तेरी तनवीर सलामत मगर ऐ महर-ए-मुबीं
घर की दीवार पे यूँ किस ने सजाया है तुझे

शिकवा-ए-तलख़ी-ए-हालात बजा है लेकिन
इस पे रोता हूँ कि मैं ने भी रुलाया है तुझे

गाह पहना है तुझे ख़िलअत-ए-ज़र्रीं की तरह
गाह पैवंद के मानिंद छुपाया है तुझे

तू कभी मुझ से रही मिस्ल-ए-सबा दामन-कश
और कभी अपने ही बिस्तर पे सुलाया है तुझे

मेरी आशुफ़्ता-मिज़ाजी में नहीं कोई कलाम
रूठ के सारे ज़माने से मनाया है तुझे