क्या किसी की तलब नहीं होती
शाइरी बे-सबब नहीं होती
जाने किस धुन में भागे जाते हैं
जुस्तुजू जी में कब नहीं होती
बा-अदब दुश्मनी को क्या रोएँ
दोस्ती बा-अदब नहीं होती
चाँद उस वक़्त भी तो होता है
जब किसी घर में शब नहीं होती
हम ने दुनिया में क्या नहीं देखा
हश्र की फ़िक्र अब नहीं होती
मय-कदे में भी कुछ न कुछ तो है
भीड़ यूँ ही ग़ज़ब नहीं होती
कौन सच्चा है कौन झूटा है
ये जिरह हम से अब नहीं होती
ग़ज़ल
क्या किसी की तलब नहीं होती
दिनेश ठाकुर