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क्या ख़बर थी आतिशीं आब-ओ-हवा हो जाऊँगा | शाही शायरी
kya KHabar thi aatishin aab-o-hawa ho jaunga

ग़ज़ल

क्या ख़बर थी आतिशीं आब-ओ-हवा हो जाऊँगा

शीन काफ़ निज़ाम

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क्या ख़बर थी आतिशीं आब-ओ-हवा हो जाऊँगा
ख़ाक ओ ख़ूँ का मुस्तक़िल मैं सिलसिला हो जाऊँगा

इब्तिदा हूँ आप-अपनी इंतिहा हो जाऊँगा
बारिशों का क़ुर्ब पा कर फिर हरा हो जाऊँगा

झाड़ियों की उँगलियाँ लपकेंगी गर्दन की तरफ़
पहली शब के आख़िरी पल की दुआ हो जाऊँगा

आसमाँ की सम्त उट्ठेंगे बगूले और मैं
रफ़्ता रफ़्ता इक मक़ाम-ए-गुम-शुदा हो जाऊँगा

चिलचिलाती धूप में अपना सरापा देख कर
रात की तन्हाइयों का वसवसा हो जाऊँगा

कुछ न कुछ खोता चला जाऊँगा इक इक मोड़ पर
और फिर मैं एक दिन तेरा कहा हो जाऊँगा

खुरदुरे और खोखले बरगद का बाज़ू थाम कर
सुब्ह-ए-सीमीं का मआल-ए-तय-शुदा हो जाऊँगा

जब कोई झुकने लगेगा शाम की दहलीज़ पर
गुम्बद-ए-मौहूम का मैं मुब्तना हो जाऊँगा

फड़फड़ाते देख कर तारों में कफ़्तर को 'निज़ाम'
उँगलियों की उलझनों में मुब्तला हो जाऊँगा