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क्या ख़बर जो नज़र आता है वो मंज़र ही न हो | शाही शायरी
kya KHabar jo nazar aata hai wo manzar hi na ho

ग़ज़ल

क्या ख़बर जो नज़र आता है वो मंज़र ही न हो

मिर्ज़ा अतहर ज़िया

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क्या ख़बर जो नज़र आता है वो मंज़र ही न हो
ये समुंदर कहीं सच-मुच में समुंदर ही न हो

जिस की उम्मीद पे सर फोड़ रही है दुनिया
कहीं इस आहनी दीवार में वो दर ही न हो

जान कर फूल जिसे दिल से लगाए हुए हैं
ग़ौर से देख लें छू कर उसे पत्थर ही न हो

दर-ओ-दीवार से ये कैसे नज़र आते हैं
जिस को वीराना समझ बैठे हैं वो घर ही न हो

इस क़दर हम को डराना नहीं अच्छा 'अतहर'
क्या पता हम को किसी चीज़ का फिर डर ही न हो