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क्या ख़बर हिज्र की शब की भी सहर होती है | शाही शायरी
kya KHabar hijr ki shab ki bhi sahar hoti hai

ग़ज़ल

क्या ख़बर हिज्र की शब की भी सहर होती है

नूर मोहम्मद नूर

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क्या ख़बर हिज्र की शब की भी सहर होती है
किस तरह देखिए ये रात बसर होती है

तेरे दीवानों की महफ़िल में है पहचान यही
रेग-ए-सहरा से सिवा ख़ाक-बसर होती है

काम बिगड़े हुए बन जाते हैं अक्सर मेरे
जब कभी तेरी इनायत की नज़र होती है

काटता हूँ शब-ए-फ़ुर्क़त इसी अरमान के साथ
डूब जाते हैं सितारे तो सहर होती है

ज़ुल्फ़-ओ-ज़ुल्फ़ जो तूल-ए-शब-ए-हिज्राँ बन जाए
चश्म वो चश्म जो पैकान-ए-जिगर होती है

चाँदनी माँद पड़े ऐसी सबाहत उन की
शक्ल देखे तो कोई रश्क-ए-क़मर होती है

रस्म-ए-उल्फ़त में यही होता है अक्सर ऐ 'नूर'
डूब जाते हैं सफ़ीने तो ख़बर होती है