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क्या ख़ाक कहूँ मतलब-ए-दिलदार के आगे | शाही शायरी
kya KHak kahun matlab-e-dildar ke aage

ग़ज़ल

क्या ख़ाक कहूँ मतलब-ए-दिलदार के आगे

नसीम भरतपूरी

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क्या ख़ाक कहूँ मतलब-ए-दिलदार के आगे
सो और सुनाएगा वो अग़्यार के आगे

बोला था जो आग़ाज़-ए-मोहब्बत में बड़ा बोल
आया वही आख़िर दिल-ए-बीमार के आगे

रोका ही किया ज़ब्त-ए-मोहब्बत सर-ए-महफ़िल
सर झुक ही गया उस बुत-ए-अय्यार के आगे

पैदा नहीं दुनिया में दवा-ए-मरज़-ए-इश्क़
क्या लोग न होते थे इस आज़ार के आगे

फ़रियादी-ए-बे-दाद-ए-जफ़ा जान के मुझ को
महशर में वो चलते हुए ललकार के आगे

मरता है कसी और पे अब ग़ैर सुना है
बोलूँगा कभी झूट न सरकार के आगे

आ जाए 'नसीम' उस को तरह्हुम तो अजब क्या
चल ले तो चलें तुझ को तिरे यार के आगे