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क्या करूँ रंज गवारा न ख़ुशी रास मुझे | शाही शायरी
kya karun ranj gawara na KHushi ras mujhe

ग़ज़ल

क्या करूँ रंज गवारा न ख़ुशी रास मुझे

शाज़ तमकनत

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क्या करूँ रंज गवारा न ख़ुशी रास मुझे
जीने देगी न मिरी शिद्दत-ए-एहसास मुझे

इस तरह भी तिरी दूरी में कटे हैं कुछ दिन
हँस पड़ा हूँ तो हुआ जुर्म का एहसास मुझे

हम ने इक दूसरे को पुरसा-ए-फ़ुर्क़त न दिया
मेरी ख़ातिर थी तुझे और तिरा पास मुझे

एक ठहरा हुआ दरिया है मिरी आँखों में
किन सराबों में डुबोती है तिरी प्यास मुझे

जैसे पहलू-ए-तरब में कोई नश्तर रख दे
आज तक याद है तेरी निगह-ए-यास मुझे

रेज़ा रेज़ा हुआ जाता है मिरा संग-ए-वजूद
यूँ सदा दे न पस-ए-पर्दा-ए-अन्फ़ास मुझे

शाख़ से बर्ग-ए-चकीदा का तक़ाज़ा जैसे
कुछ इस तरह अभी तक है तिरी आस मुझे

रूह के दश्त में इक हो का समाँ है ऐ 'शाज़'
दे गया कौन भरे शहर में बन-बास मुझे