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क्या कर रहे हो ज़ुल्म करो राह राह का | शाही शायरी
kya kar rahe ho zulm karo rah rah ka

ग़ज़ल

क्या कर रहे हो ज़ुल्म करो राह राह का

आग़ा शाएर क़ज़लबाश

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क्या कर रहे हो ज़ुल्म करो राह राह का
कहते हैं बे-जिगर है बड़ा तीर आह का

यूँ रौंगटे लरज़ते हैं पूछेंगे रोज़-ए-हश्र
क्यूँ एक दिन भी ख़ौफ़ न आया गुनाह का

हालत पे मेरी उन के भी आँसू निकल पड़े
देखा गया न यास में आलम निगाह का

किसरा का ताक़ काबे के बुत मुँह के बल गिरे
शोहरा सुना जो अशहदो-अन-ला-इलाह का

'शाइर' अजीब रंग से गुज़री है अपनी उम्र
दुनिया में नाम भी न सुना ख़ैर-ख़्वाह का