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क्या कहूँ कब धुआँ नहीं उठता | शाही शायरी
kya kahun kab dhuan nahin uThta

ग़ज़ल

क्या कहूँ कब धुआँ नहीं उठता

शाह हुसैन नहरी

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क्या कहूँ कब धुआँ नहीं उठता
मुझ से अपना ज़ियाँ नहीं उठता

भींचते रहते हैं दर-ओ-दीवार
और दिल से मकाँ नहीं उठता

आबरू थाम थाम लेती है
हाथ वर्ना कहाँ नहीं उठता

उठती जाती हैं सारी उम्मीदें
ख़दशा-ए-जिस्म-ओ-जाँ नहीं उठता

हाथ उठते रहे हैं मुझ पर 'शाह'
मुझ से बार-ए-ज़बाँ नहीं उठता