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क्या कहें ज़िंदगी का क्या कीजे | शाही शायरी
kya kahen zindagi ka kya kije

ग़ज़ल

क्या कहें ज़िंदगी का क्या कीजे

ख़ालिद महमूद ज़की

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क्या कहें ज़िंदगी का क्या कीजे
इक लब-ए-दम ख़ुशी का क्या कीजे

जान दीवार ही से बचती है
वर्ना शोरीदगी का क्या कीजे

दूर क्या पास तेरे रह कर भी
किस से कहिए कमी का क्या कीजे

होश आख़िर को आ ही जाना था
लेकिन अब बे-ख़ुदी का क्या कीजे

किस क़दर ख़ुद को दीजिए धोका
इस क़दर बे-हिसी का क्या कीजे