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क्या कहें क्या हुस्न का आलम रहा | शाही शायरी
kya kahen kya husn ka aalam raha

ग़ज़ल

क्या कहें क्या हुस्न का आलम रहा

बक़ा बलूच

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क्या कहें क्या हुस्न का आलम रहा
वो रहे और आइना मद्धम रहा

ज़िंदगी से ज़िंदगी रूठी रही
आदमी से आदमी बरहम रहा

रह गई हैं अब वहाँ परछाइयाँ
इक ज़माने में जहाँ आदम रहा

पास रह कर भी रहे हम दूर दूर
इस तरह उस का मिरा संगम रहा

तू मिरे अफ़्कार में हर पल रही
मैं तिरे एहसास में हर दम रहा

जी रहे थे हम तो दुनिया थी ख़फ़ा
मर गए तो देर तक मातम रहा