क्या कहें हम थे कि या दीदा-ए-तर बैठ गए
क़ुल्ज़ुम-ए-अश्क में जूँ लख़्त-ए-जिगर बैठ गए
ना-तवाँ हम यूँ तिरी बज़्म से निकले क्यूँकर
किसे मालूम है हम आ के किधर बैठ गए
आप को ख़ून के आँसू ही रुलाना होगा
हाल-ए-दिल कहने को हम अपना अगर बैठ गए
किस को इक दम का भरोसा है कि मानिंद-ए-हबाब
बहर-ए-हस्ती में इधर आए उधर बैठ गए
दूर समझा है रक़ीबों को यहाँ से 'आरिफ़'
यार के पास जो बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर बैठ गए
ग़ज़ल
क्या कहें हम थे कि या दीदा-ए-तर बैठ गए
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़