EN اردو
क्या कासा-ए-मय लीजिए इस बज़्म में ऐ हम-नशीं | शाही शायरी
kya kasa-e-mai lijiye is bazm mein ai ham-nashin

ग़ज़ल

क्या कासा-ए-मय लीजिए इस बज़्म में ऐ हम-नशीं

नज़ीर अकबराबादी

;

क्या कासा-ए-मय लीजिए इस बज़्म में ऐ हम-नशीं
दौर-ए-फ़लक से क्या ख़बर पहुँचेगा लब तक या नहीं

ये कासा-ए-फ़ीरोज़गूँ है शीशा-बाज़-ए-पुर-फ़ुनूँ
जितने हियल हैं और फ़ुसूँ सब उस के हैं ज़ेर-ए-नगीं

हो ए'तिमाद उस का किसे है शीशा-बाज़ी याद उसे
रखता है शाद इक दम जिसे करता है फिर अंदोहगीं

कल दामन-ए-सहरा में हम गुज़रे जो वक़्त-ए-सुब्ह-दम
इक कासा-ए-सर पर अलम आया नज़र अपने वहीं

बोला ब-फ़रियाद-ओ-फ़ुग़ाँ क्या देखता है ओ मियाँ
थे हम भी सर-बर-आसमाँ गो अब तो हैं ज़ेर-ए-ज़मीं

गुल-बर्ग से नाज़ुक-बदन सर पाँव से रश्क-ए-चमन
ज़र्रीं ओ सीमीं पैरहन दिलकश मकानों के मकीं

दिन रात नाज़ ओ नेमतें मह-तलअतों की सोहबतें
ऐश-ओ-नशात-ओ-इशरतें साक़ी क़िराँ मुतरिब क़रीं

बाग़-ओ-चमन पेश-ए-नज़र बज़्म-ए-तरब शाम-ओ-सहर
हर-सू ब-कसरत जल्वा-गर हुस्न-ए-बुतान-ए-नाज़नीं

एक आसमाँ के दौर से इक गर्दिश-ए-फ़िल-फ़ौर से
अब सोचिएगा ग़ौर से दर-लहज़ा-आँ दर-लहज़ा-ईं

सुनते ही जी थर्रा गया रुख़्सार पर अश्क आ गया
दिल इब्रतों से छा गया ख़ातिर हुई बस सहमगीं

उस में सर अपना ना-गहाँ हर मू हुआ मिस्ल-ए-ज़बाँ
बोला 'नज़ीर' आगह हो हाँ मन-नीज़-रोज़े हमचुनीं